रविवार, 22 सितंबर 2013

बेटियों से क्षमायाचना 2

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बेटियों से क्षमायाचना

On the happy occasion of Daughter's Day, I want to dedicate this poem written by Leeladhar Mandloi to all daughters of the world particularly of India.

 हमारे दुःख इतने  एक सरीखे थे कि
लड़ने के अलावा हमें
कुछ और सोचना नहीं चाहिए था
और जिसे हम  मानके चले थे लड़ाई
वह दरअसल एक भ्रम था जो
बुना गया हमारे चारों तरफ

बाज दफा हम कहना चाहते थे बेटियों से
कि हमारी सिरजी दुनिया
उनके काबिल नहीं
कि वहां अंत तक उनके हिस्से कुछ भी नहीं

एक ऐसी चुस्त घेराबंदी थी हमारे आसपास
कि जिसमें लड़ने के सारे रास्ते
बंद कर रक्खे थे पुरखों ने और
मान-मर्यादा के ऐसे कानून
कि पिंजरों में कैद पक्षी की सी हालत

हम बार बार बोलना चाहते थे कि
हमारी दुनिया से मुक्त हो जाना ही
अंतिम जुगत थी लेकिन इतना साहस भी न था
कि हमारे गले में लटके थे धर्मग्रन्थ

लगता तो यहाँ तक था हमें
कि बदल देंगे वह प्रारूप जिसमें
रेहन रख छोडे हैं हमने तुम्हारे सपने
हंसी और अकूत ताकत
कि असंभव हो उठेगा दूसरा
कोई भी नामुआफिक कानून

हम सचमुच करना चाहते थे फतह
उस किले को जिसमें बंद था
तुम्हारी मुक्ति का बीजमंत्र
कभी मुक्त न हो सके अव्वल तो हम खुद
कि इतने सख्त इंतजाम

हम गुनहगार हैं
पहली फुरसत में छोड़ जाना हमें
कि हमें छोड़ना ही मुक्ति के रास्ते पहला कदम
                     ---- लीलाधर मंडलोई